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भारत के इतिहास में राम के चरित्र को जिस तरह सार्वभौमिक रूप से अंगीकार किया गया उस रूप में सीता कहीं नेपथ्य में पायी जाती हैं। कालांतर में अब जब सीता को लेकर साहित्य और कला के क्षेत्र में विमर्श प्रारम्भ हुआ तब भी जानकी, वैदेही, जनकनंदिनी, सीताराम, रामप्यारी, रामप्रिया; और आगे चलने पर सियाराम, सीताराम आदि सम्बोधनों से ही सीता को अपनाने या उन्हें सम्मान का दर्ज़ा देने वाली बात है। सीता को सीता के रूप में – जैसी हैं, जो हैं, बिना किसी और के साथ सम्बंध के बिना जिस स्वरूप में हैं – उस रूप में रहने देना और होने देना आज एक बड़े बौद्धिक और सामाजिक वर्ग की माँग है। जनमानस में राम का श्रीराम के रूप में प्रतिष्ठित होना, एक सफल राजनीतिक विमर्श और आंदोलन के साथ जुड़े रहना राम के आदर्श स्वरूप को अखिल भारतीय स्वीकार्यता की धुरी बनाती है। लेकिन सीता उस तरह के विमर्श और मंथन का हिस्सा कभी नहीं रहीं। कदाचित् यह सम्भव भी कम है कि सीता के स्वरूप और उनकी छवि को राम के राजनीतिक रूप सा अंगीकार किया जा सके। इसलिए भी क्योंकि स्त्रैण शक्ति से प्रशस्त मानव की एक सशक्त प्रतीक सीता जाति, लिंग, वर्ग आदि के विच्छेदकारी और विभेदकारी आग्रहों के परे हैं। सीता को लेकर अगर कभी कोई राजनीति होती भी है तो उसकी गर्भनाल संस्कृति, कला, समाज के जगत् से ही जुड़ी होगी। अगर कभी हो पाया तो सीता भारत के सामाजिक-राजनीतिक विचार परम्परा और विमर्श की थाती पर समरसता और संगठन की अद्भुत मिसाल बनकर उभरेंगी। विचार मंथन की इस कड़ी में हमने डॉ. ऊषा किरण खान और डॉ. संजय पासवान के साथ सीता पर बात की है। सतीत्व से सीतात्व के ओर की यात्रा कैसी दिखती है इसकी एक झलक आपको दिखाने का हमारा प्रयास है।
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