मानव संसाधन विकास बनाम शिक्षा मंत्रालय

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मानव संसाधन विकास मंत्रालय का नाम बदल कर पुनः शिक्षा मंत्रालय करने की आवश्यकता एवं कारण |

मुख्य शब्द : मानव संसाधन विकास मंत्रालय | शिक्षा मंत्रालय | भारतीय प्रज्ञा व संस्कृति | नामकरण संस्कार | विश्वजनींन मूल्य | उत्तम मानव

भारत सरकार ने हाल ही में मानव संसाधन विकास मंत्रालय का नाम बदल कर पुनः शिक्षा मंत्रालय कर एक सातत्य सनातनता के बोध का परिचय दिया है। 1985 में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने पश्चिम का अनुकरण कर शिक्षा मन्त्रालय का नाम बदल कर मानव संसाधन विकास मंत्रालय करके आधुनिकता का परिचय देने का प्रयत्न किया था । पर यह एक बड़ी भूल थी। इस भूल मार्जन के लिये देश के यशस्वी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जी ने अपनी धरती से, अपनी ज्ञानमयी परम्परा से, शिक्षा की सर्वोच्चता से जुड़ने का तथा देश की जनता को जोड़ने का एक अभिनंदनीय कार्य किया है। 

लोकश्रुति है कि 84 लाख योनियों में मानव जीवन सर्वश्रेष्ठ है। केवल यहीं पर विचार और कर्म की स्वतंत्रता है, कर्मानुसार फल भोगने में तो मनुष्य भी परतंत्र है। 

 भारतीय प्रज्ञा व संस्कृति ने मानव को इस सृष्टि की अंतिम एवं अमूल्य कृति माना है। मनुष्य केवल हाड़- मांस का एक पुतला नहीं वरन एक अनंत यात्रा का राही, चतुर्थ पुरुषार्थ- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष-को सिद्ध करने वाला, इस पृथ्वी पर देवत्व का प्रतिनिधि है। मानुष शरीर को देवपुरी, ब्रह्मपुरी तथा 8 चक्रों व 9 द्वारों वाली अयोध्या भी कहा गया है। इस मनुष्य शरीर को ही 7 ऋषियों ( 5 ज्ञानेंद्रिया, मन व बुद्धि ) की तपस्थली भी माना गया है। लोकश्रुति है कि 84 लाख योनियों में मानव जीवन सर्वश्रेष्ठ है। केवल यहीं पर विचार और कर्म की स्वतंत्रता है, कर्मानुसार फल भोगने में तो मनुष्य भी परतंत्र है। पर दूसरे सभी प्राणी तो भोग योनि में ही है। मानव अपने बुद्धि – ज्ञान के कारण ही समस्त सृष्टि का एक ट्रस्टी है। इसके विपरीत पश्चिमी सोच यह रही है कि मनुष्य एक मैथुनी, राजनैतिक, नक़लची व सामाजिक पशु है। एक तरफ़ उन्होंने मनुष्य को इस सृष्टि का स्वामी, इसके प्रत्येक घटक – संसाधन का उपभोग करने वाला माना, वहीं दूसरी तरफ़ उसे भी एक संसाधन ही मान लिया । ध्यान से विचार करे तो पता लगेगा कि स्वामी और संसाधन एक कैसे हो गये? प्रकृति में सारे संसाधन जड़ होते हैं, उनका स्वामित्व बदलता रहता है। धन, ज़मीन, सम्पत्ति आज एक व्यक्ति के पास है तो कल वे दूसरे के पास जा सकते हैं। यह किसी के पास भी स्थायी नहीं है। 

ध्यान से विचार करे तो पता लगेगा कि स्वामी और संसाधन एक कैसे हो गये?

मनुष्य के पास अपने देवत्व के कारण एक ऐसी सामर्थ्य, एक ऐसी विलक्षण क्षमता है जिसकी बढ़ने या बढ़ाने में सामान्य भाषा में कोई मर्यादा , कोई सीमा नहीं है। दुनियाँ की ज्ञान सम्पदा के मूल में देवत्व है, उसे बढ़ाने का काम केवल मनुष्य ने किया है और किसी भी संसाधन में यह संभव ही नहीं। विश्व का सारा ज्ञान,विज्ञान, तकनीकी केवल मनुष्य के उपयोग के लिये है,किसी और प्राणी के लिये नहीं है।दूसरे प्राणी भी केवल मात्र संसाधन नहीं है, उन में से अधिकतर मनुष्य के ज्ञान, उसकी सामर्थ्य से परे पर्यावरण तथा जैव- विविधता के संरक्षण व संधारण में अपना अपना महत्वपूर्ण योगदान दे रहे हैं। 

मनुष्य के पास अपने देवत्व के कारण एक ऐसी सामर्थ्य, एक ऐसी विलक्षण क्षमता है जिसकी बढ़ने या बढ़ाने में सामान्य भाषा में कोई मर्यादा , कोई सीमा नहीं है।

 इसीलिये मानव को दूसरे संसाधनों के साथ एक संसाधन मान लेना मानव का अपमान है, उसके देवत्व का, उसकी ज्ञान पिपासा , उसकी क्षमता को नीचा दिखाना है। भारतीय मनीषा ने उपनिषदों के शब्दों में मनुष्य को अमृतपुत्र कहा है। उसे विराटपुरुष का सदा प्रकाशित प्रकाश- बिन्दू , “प्रज्ञानम् ब्रह्म”, “अहं ब्रह्म अस्मि”, “तत् त्वम् असि” एवं “अयम् आत्मा ब्रह्म” जैसे उददात विशेषणों से सम्बोधित किया है। केवल भारतीय प्रज्ञा ने ही नहीं, बल्कि वैदिक संस्कृति के वैश्विक प्रचार के कारण दुनिया के विभिन्न धार्मिक सम्प्रदायों ने भी मनुष्य को एक ऊँचे धरातल पर प्रस्थापित किया है । पारसी मत ने कहा कि सर्वज्ञ बुद्धिमान ने मनुष्य को अपनी तरह का बनाया। ईसाई परम्परा ने माना कि भगवान ने मनुष्य को अपनी शक्ल का बनाया। इस्लाम ने आदमी को धरती पर खुदा का प्रतिनिधि बताया। चीनी दार्शनिकों ने उपदेश किया कि मनुष्य स्वर्ग से उतरा अच्छाईयों का पुंज है। सिख मत ने कहा कि आदमी की आत्मा में परवरदिगार है, आदमी ईश्वर का प्रतिबिम्ब है। ऐसे मानव को जो पूर्वजन्मों के संस्कार लेकर , ईश्वर की व्यवस्था से एक विशेष प्रयोजन लेकर इस धरा पर आया है, उसे अच्छे संस्कार देकर समाज में उत्तम मानव बनाना, राष्ट्र का एक अच्छा नागरिक बनाने की व्यवस्था- तंत्र देना ही शिक्षा मंत्रालय का काम है। 

इसीलिये मानव को दूसरे संसाधनों के साथ एक संसाधन मान लेना मानव का अपमान है, उसके देवत्व का, उसकी ज्ञान पिपासा , उसकी क्षमता को नीचा दिखाना है।

 शिक्षा मंत्रालय का काम मानव निर्माण शिक्षा की समुचित व्यवस्था प्रदान करना है। बालक के अंदर प्रसुप्त चेतना, उसकी अंतर्निहित योग्यता को इस तरह से जगाना है, बाहर निकालना है जैसे एक कुशल शिल्पकार पत्थर से मूर्ति का निर्माण करता है । प्रत्येक बालक में कुछ न कुछ विलक्षण प्रतिभा है, उस प्रतिभा की खोज कर उसे उड़ने के लिए पंख प्रदान करना अच्छे शिक्षकों का काम है । इसलिए केन्द्रीय मंत्रालय तथा राज्यों के शिक्षा विभागों का सबसे पहले सही प्रशिक्षण की व्यवस्था कर उत्तम शिक्षकों का निर्माण करना सबसे अहम कर्त्तव्य है । तभी तो मानव की अंतर्निहित पूर्णता बाहर छलकेगी। 

हमें यह स्वीकार करना होगा कि बालक के रूप मैं यह मनुष्य देवत्व का प्रतिनिधि है , सृष्टि की अमूल्य व अलभ्य कृति है । उसकी सामर्थ्यतथा प्रतिभा पर कोई सीमा नहीं लगायी जा सकती । वह केवल एक संसाधन नहीं, संसाधनों का निर्माण करने वाला तथा उनका समाज व राष्ट्र के हित में समुचित उपयोग करने वाला समाज व राष्ट्र का ही प्रतिनिधि है। 

 राष्ट्र की जरूरतों को ध्यान में रखकर अच्छे नागरिकों का निर्माण करना भी शिक्षा मंत्रालय की ज़िम्मेदारी है । हमें यह स्वीकार करना होगा कि बालक के रूप में यह मनुष्य देवत्व का प्रतिनिधि है , सृष्टि की अमूल्य व अलभ्य कृति है । उसकी सामर्थ्यतथा प्रतिभा पर कोई सीमा नहीं लगायी जा सकती । वह केवल एक संसाधन नहीं, संसाधनों का निर्माण करने वाला तथा उनका समाज व राष्ट्र के हित में समुचित उपयोग करने वाला समाज व राष्ट्र का ही प्रतिनिधि है। उसके अपने व्यक्तिगत जीवन को भौतिक व आध्यात्मिक ऊंचाइयों पर ले जाने के लिए तथा सर्वहितकारी कर्त्तव्यों के लिए तैयार करना व करवाना शिक्षा मंत्रालय का एक देवतुल्य कार्य है। 

मानव को केवल एक संसाधन ही मान लेना मानवता की एक अवहेलना भी है और उसकी अवमानना भी। मुझे विश्वास है कि अब शिक्षा मन्त्रालय एक ऐसी सशक्त सर्वांगीण विकास की व्यवस्था को जन्म देगा जिसकी जड़ें भारतीय संस्कृति में होगी।

 भारतीय संस्कृति में नाम की बड़ी क़ीमत है। इसीलिये नामकरण संस्कार का महत्व है। मानव को केवल एक संसाधन ही मान लेना मानवता की एक अवहेलना भी है और उसकी अवमानना भी। मुझे विश्वास है कि अब शिक्षा मन्त्रालय एक ऐसी सशक्त सर्वांगीण विकास की व्यवस्था को जन्म देगा जिसकी जड़ें भारतीय संस्कृति में होगी। वह शिक्षा भूतकाल की दास न बनकर, सनातन सत्यों के प्रकाश में, विश्वजनींन मूल्यों की छाया में, मनुष्य को समष्टि से और सम्पूर्ण सृष्टि से जोडता हुआ विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी रूपी अविद्या को अपनाती हुई भारत देश को एक परम वैभव पर पहुँचाने में सफल होगी। 

2 comments

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  • आदरणीय सांसद महोदय,
    आपने शिक्षा और संसाधन की सरल शब्दों में व्याख्या कर दी है, शिक्षा देने में बदलाव अति आवश्यक था ,और शुरुआत विभाग का नाम बदलने से ही हुई. आज बच्चे ही नहीं अभिवाभक भी इस बदलाव को चाह्ते थे.

  • Atmanirbhar education only solutions human progress.every person to be able to know about his ability and capacity according their requirement.it is depend on knowledge and power in the right direction.iam very proud dr SP Singh works Vivekanand salute sir,

Satyapal Singh

डॉ. सत्यपाल सिंह बागपत लोकसभा क्षेत्र से संसद सदस्य हैं एवं भूतपूर्व शिक्षा राज्य मंत्री
रह चुके हैं।

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