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जापान के किसी भी प्रधानमंत्री ने भारतीय जनता पर, अभी तक ऐसी छाप नहीं छोड़ी जैसा शिंजो अबे ने अपने कार्यकाल में की है। वो भारत-जापान सम्बन्ध के इतिहास में पहले प्रधानमंत्री बने जब किसी जापानी प्रधानमंत्री ने पूरी शाम गंगा आरती को वाराणसी दसासमेध घाट पर देखा। यह लाखों भारतीयों के लिए पहला मौका था जब किसी देश के नेता ने “भारतीय संस्कृति और मूल्यों” के प्राप्ति अपनी सच्ची श्रद्धा और सम्मान को अर्पित किया।
शिंजो अबे ने द्विपक्षीय और बहुपक्षीय, दोनों संबंधों के केंद्र में रहकर एक सशक्त एशिया की परिकल्पना को आगे बढ़ाया जो की किसी भी प्रकार के विस्तारवाद, अनावश्यक सैन्य बल प्रयोग से दूर हो और अंतरराष्ट्रीय कानून के अनुसार हो |
पिछली 25 वर्षो में जापान में 17 प्रधानमंत्री रहे, उनमें से 7 का कार्यकाल तो एक साल से भी कम का था, ऐसे दौर में जब जापान में प्रधानमंत्री के रूप में शिंजो अबे ने सितंबर 2006 में पदभार संभाला, तो अपने राजनितिक और आर्थिक फैसलों से भारत और जापान के आपसी संबंधों को एक नयी गति प्रदान की। लगभग 52 वर्ष की आयु में, जापान के सबसे कम उम्र के उत्तर-युद्ध काल के प्रधानमंत्री बने। इसके अलावा वह 1948 में शिगेरू योशिदा के बाद कार्यालय में दोबारा लौटने वाले पहले पूर्व प्रधानमंत्री बने। हाल के वर्षों में किसी भी नेता ने एशिया की राजनीति और रणनीतिक सोच को इस तरह से प्रभावित नहीं किया जैसा की अबे ने अपने दूरर्शिता का परिचय देकर किया है। शिंजो अबे ने द्विपक्षीय और बहुपक्षीय, दोनों संबंधों के केंद्र में रहकर एक सशक्त एशिया की परिकल्पना को आगे बढ़ाया जो की किसी भी प्रकार के विस्तारवाद, अनावश्यक सैन्य बल प्रयोग से दूर हो और अंतरराष्ट्रीय कानून के अनुसार हो |
जहां तक भारत व जापान के संबंधों की बात है, अगस्त 2007 में भारतीय संसद को संबोधित करते हुए अबे ने ‘इंडो-पैसिफिक’ की अवधारणा दी जो की एक भू-राजनीतिक विचार है, और वर्तमान में बहुत लोकप्रिय और व्यापक हो चुका है। इस सम्बन्ध में उन्होंने दाराशिकोह की पुस्तक जिसका शीर्षक “दो समुद्रों का संगम” का उल्लेख किया। उनकी इंडो-पैसिफिक की अवधारणा प्रशांत और हिन्द महासागर के बीच ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और भू-राजनीतिक संबंधों की बात करती है। इस विचार को अबे ने अपने हालिया कार्यकाल में बढ़ाया और उसके लोकतान्त्रिक प्रकृति को परिभाषित किया।
अगस्त 2007 में भारतीय संसद को संबोधित करते हुए अबे ने ‘इंडो-पैसिफिक’ की अवधारणा दी जो की एक भू-राजनीतिक विचार है, और वर्तमान में बहुत लोकप्रिय और व्यापक हो चुका है।
अगर हम देखें तो “अबे मॉडल” के तहत, जापान ने एशिया क्षेत्र के बुनियादी ढांचे में, सीधे और एशियाई विकास बैंक के माध्यम से दृढ़ता से निवेश किया है। भारत को भी इसका लाभ हुआ है, जैसा की हम जापान द्वारा भारत में राजमार्ग विकास और बुलेट ट्रेन प्रोजेक्ट में देखते हैं। एशिया में कई विकासशील देश पश्चिमी के देशों से निवेश को आकर्षित करने के लिए संघर्ष कर रहे हैं, और चीनी निवेश से जुड़े नकारात्मक पहलू उनके लिए चिंता का विषय है | विकासशील एशियाई देशों के लिए चीनी निवेश की अपेक्षा जापान से सस्ता क़र्ज़ ज्यादा आकर्षक और सुविधाजनक है। अब ये देखना होगा की कैसे जापान अन्य एशियाई देशों को इस निवेश का लाभ आने वाले समय में दे पाएगा। अबे के पदमुक्त होने के बाद भारत-जापान संबंधों के लिए भी यह एक आवश्यक पहल होगी।
दोनों देशों के लिए ‘इंडो-पैसिफिक’ की अवधारणा को जारी रखने के लिए और चीन की क्षेत्रीय महत्वाकांक्षाओं से निपटने के उद्देश्य से सैन्य साझेदारी में एक विश्वसनीय भागीदारी को बनाने पे बल दिया जाना चाहिए। अबे के कार्यकाल में इस बात को अधिक सहयोग मिला। सितंबर 2014 में पीएम मोदी और अबे ने द्विपक्षीय संबंधों को “विशेष रणनीतिक और वैश्विक साझेदारी” के लिए उन्नत करने पर सहमत हुए। यह संबंध बढ़ता गया और असैन्य परमाणु ऊर्जा से लेकर समुद्री सुरक्षा, बुलेट ट्रेन से लेकर गुणवत्ता परक बुनियादी ढांचा विकास और एक्ट ईस्ट नीति आदि विषयों पर सहमति बनी। डोकलाम संकट (2017) के दौरान भी जापान ने चीन के खिलाफ एकतरफा यथास्थिति बदलने के प्रयास की आलोचना की थी। बीजिंग के प्रभाव का मुकाबला करने के लिए दोनों देशों ने मालदिव और श्रीलंका में संयुक्त परियोजनाओं की योजना बनाई.
शिंज़ो अबे के बाद, द्विपक्षीय संबंधों के लिहाज से यह देखना दिलचस्प होगा की जापान के नए प्रधानमंत्री योशिहिदे सुगा विश्व मेें जारी राजनीतिक उथलपुथल से निपटने के लिए और जापान को आगे बढ़ाने के लिए किस तरह की नीतियाँ अपनाते हैं |
शिंज़ो अबे के बाद, द्विपक्षीय संबंधों के लिहाज से यह देखना दिलचस्प होगा की जापान के नए प्रधानमंत्री योशिहिदे सुगा विश्व मेें जारी राजनीतिक उथलपुथल से निपटने के लिए और जापान को आगे बढ़ाने के लिए किस तरह की नीतियाँ अपनाते हैं | जापान के पास तेजी से विश्व शक्ति के रूप में उभरते हुए चीन का सामना करने के लिए क्षेत्रीय सहयोगियों के रूप में ज्यादा विकल्प नहीं हैं, और भारतीय भी आने वाले दिनों में यह करीब से देखेंगे की क्या वह जापान-भारत संबंधों के बारे में अबे के दृष्टिकोण की तरफ प्रतिबद्ध रहेंगे ।
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