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ये पूर्णतः स्थापित हो गया है कि वर्तमान किसान आंदोलन को विघटनकारी तत्वों ने अगवा कर लिया है और सरकार को उसे भिन्न तरीके से निपटना होगा। जहाँ तक संबंधित “किसान कानूनों” का संदर्भ है, ये संसोधित क़ानून किसान हित में है। हाँ! इसके कुछ पहलुओं पर सरकार की विचारशील दृष्टिकोण की आवश्यकता जरूर है। सरकार को ये स्वीकार करना होगा कि हमारे भारत के अधिकांशतः किसान न ही इतने पढ़े लिखे हैं जो एग्रीमेंट को पूरी तरह समझ पायें और न ही उनमें इतनी आर्थिक/मानसिक समर्थता है कि वो अगले से अपना हित मनवा पायें। ऐसे में ये सरकार का दायित्व बन जाता है कि वो किसान के पक्ष में हों और एग्रीमेंट को ले कर एहतियाती हों। सरकारी एहतिहात इस मुद्दे पर भी वांछित होगी कि कोई भंडारण कर कालाबाज़ारी न करे, ये सही है कि वर्तमान परिदृश्य में उत्पादन अधिक होने के हेतू से वैसी नौबत दृष्टिगत नहीं हो रही पर आदर्श वातावरण सदा नहीं रहता।
वर्तमान केंद्र सरकार की नेक–नियति को लेकर इस बात का पूरा भरोसा है कि मोदी सरकार उपरोक्त पहलुओं पर सार्थक कदम उठाने से कभी पीछे नहीं हटेगी बशर्ते की इनपर एक गंभीर, ईमानदार और सार्थक संवाद हो।
मनस! उपरोक्त, इस लेख में चिंता या विचार का पहलू नहीं है। हमारा और इस लेख का उद्देश्य किसान के उस स्थिति को लेकर है जिसे भुगतने के लिये भारत के किसान विवश हैं।
किसान एनवायर्नमेंटल इकोलॉजी और जी.डी.पी दोनों के समृद्धि का महत्वपूर्ण कारक और सूचक है, इसके बावजूद वो परित्यक्त है। ये कोई कोरी कल्पना नहीं कि आज अधिकांश भारतीय किसान की आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं कि वो सम्मान के साथ अपने परिवार को पाल सके। उसकी सामाजिक हैसियत भी नगण्य है। ये सही है की वर्तमान मोदी सरकार किसानों के बारे में सोच रही है और सरकार ने एम.एस.पी को बढ़ा कर, किसान सम्मान योजना और दूसरे समानांतर किसान–हित योजनाओं के द्वारा अपनी किसान–हित की नेक–नियत को भी जाहिर किया है। पर क्या हमारे अन्नदाता का प्रारब्ध यही है कि वो सिर्फ सरकार और दूसरों के उपकार पर जिंदा रहे ? और! सिर्फ जिंदा रहे ? जबकि पूरी जनसंख्या का दैहिक समृद्धि और आर्थिक समृद्धि, या कहें, हमारा समग्र विकास इन्ही अन्नदाताओं के द्वारा उत्पादित अन्न में प्रच्छन्न है। आत्मसम्मान और आत्मनिर्भरता, दोनों साथ–साथ चलते हैं।
किसानी आज भी लाभ की व्यस्तता नहीं है। खुद किसान परिवार के युवा भी खेती–किसानी को अपने जीवनोपार्जन का माध्यम बनाने की चाह नहीं रखते। बाढ़, सूखा, कीटनाशक अथवा अन्य कारणों से फसल की बर्बादी, उम्मीद से कम उत्पाद, सही कीमत न मिलना, बीमा योजना के अंतर्गत फसल बीमा न करा पाना, अशिक्षित होना, आदि अनेक भीन्न–भीन्न कारक हैं जिन कारणों से इन्हें सतत आर्थिक मार झेलनी पड़ती है। 2018–19 में प्रकाशित, नेशनल ह्यूमन राइट्स से मान्यता प्राप्त “एग्र्रीयन क्राइसिस एंड फारमर सुसाइड” नामक एक रिपोर्ट, जो नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ़ रूरल डेवलपमेंट और पंचायती राज द्वारा कराये गये अध्ययन पर आधारित थी,(ये अध्यन उन्होंने महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, कर्नाटक और तेलंगाना के 200 किसान परिवारों पर की थी। ये तीनों वो प्रदेश हैं जहाँ आत्महत्या करने वाले किसानों की संख्या अधिक है।), के अनुसार छोटे जमीन जोतदारों की मासिक आय 4561 रुपये से भी कम है। तकरीबन 13 फीसदी परिवारों ने दूध और अण्डों जैसी जरूरी खाद्य पदर्थों का सेवन करना बंद कर दिया है। तकरीबन 8 फीसदी परिवारों ने अपनी स्थायी सम्पतियाँ बेच दी है। तकरीबन 6 फीसदी परिवार (बच्चों सहित) बंधुआ मजदूरी के लिये मजबूर हो गये हैं। जिनके दिन भर काम करने का मेहनताना होता है आटे या चावल की कुछ थैलियां। इन आंकड़ों को अगर देश के स्तर पर देखा जाये तो स्थिति की भव्यता डराती है। इस रिपोर्ट के अनुसार आत्महत्या करने वालों में छोटे किसानों की संख्या सबसे अधिक है। वे छोटे किसान जो किसी न किसी कारणवश कर्ज़ तले दबे थे। इन कारणों में सामाजिक और धार्मिक उद्देश्यों को पूरा करने के लिये 15 फीसदी और घर बनाने और शादी-ब्याह के खर्च के लिये 13 फीसदी क़र्ज़ की हिस्सेदारी है। जबकि खाने से जुड़े खर्च के लिये 18 फीसदी किसान कर्जदार हुए थे। आत्महत्या करने वाले किसानों में तकरीबन 70 फीसदी लोग 20 से 50 साल के आयु-वर्ग के थे।
एक पहलू ये भी :- दैनिक जागरण के वेबसाइट (चंडीगढ़; 25 अगस्त 2018) पर एक लेख प्रकाशित हुई थी जिसमें इस विषय की चर्चा थी कि “पंजाब के किसान आत्महत्या क्यों करते हैं”। इस लेख में, विभिन्न सर्वे के आधार पर ये निष्कर्ष निकलने की कोशिश की गई थी कि “पंजाब”, जहाँ के अधिकतर किसानों के पास खेती के बड़े जमीन हैं, जहाँ के किसान परिवार में प्रति घर आय प्रति माह औसतन 23,133 रुपये है जबकि उत्तर प्रदेश में यह आंकड़ा 6,668 रुपये का है। पंजाब, जहाँ के 98 फीसद किसानों के पास सिंचाई के संसाधन उपलब्ध हैं, मक्की, गेहूं और धान में पैदावार सारे विश्व में सबसे ज्यादा है, वहाँ के किसान आत्महत्यायें क्यों कर रहे हैं? इस लेख में इसका दो कारण निष्कर्षित किया गया था। पहला, पंजाब के किसान कर्ज लेने और खर्च करने में देश के दूसरे राज्यों के किसानों के मुकाबले सबसे आगे हैं। लेख बताता है कि पंजाब में कुल 4.5 लाख ट्रैक्टर हैं, जबकि जरूरत मात्र 1 लाख ट्रैक्टर की है। साफ है कि खेती मशीनरी के नाम पर किया गया अनउपयुक्त निवेश, कर्ज के रूप में उनके गले की फांस बन जाता है। दूसरा, पारंपरिक ढंग से धान के पैदावार में ज्यादा पानी का उपयोग कर उन्होंने भूजल को खत्म करने के मुहाने पर खड़ा कर दिया है। नतीजन, हर तीसरे साल अपने ट्यूबवेलों को और गहरा करने के चक्कर में वो सरकार द्वारा उपलब्ध कराई जा रही मुफ्त/सस्ती बिजली से बचने वाले पैसों का करीबन पूरा भाग ट्यूबवेल गहरे करवाने में खर्च कर डालते हैं।
पंजाब के संदर्भ में ऊपर वर्णित तथ्यों को अगर छोड़ दें और साथ ही देश के अन्य राज्यों के आंकड़ों का अध्ययन करें तो इतना तो स्पष्ट है कि गरीब और छोटे किसानों का कर्ज तले दबा होना ही किसानों के आत्महत्या का सबसे प्रमुख कारक है।(उपरोक्त वर्णित दैनिक जागरण के लेख के आंकडो को माने तो भी पंजाब में भी प्रति परिवार प्रति माह, किसानी से प्राप्त औसतन आय 23,133 रुपये को आज के दृष्टिकोण से ठीक–ठाक ही कहा जा सकता है, अच्छा नहीं।) दुखद पहलू ये है, जो ऊपर वर्णित “एग्र्रीयन क्राइसिस एंड फारमर सुसाइड” से निकल कर सामने आता है, की आत्महत्या करने वालों में 18 प्रतिशत लोग ऐसे थे जिन्होंने अपने परिवार के भोजन हेतू कर्ज़ लिया था। किसानों के तकरीबन 27 फीसदी परिवार ने साहूकारों से कर्ज़ लिया हुआ था जबकि उससे कम, तकरीबन 21 फीसदी परिवारों ने बैंकों से क़र्ज़ लिया था। इसमें से 32 प्रतिशत कर्ज़ किसानी से जुड़े खर्चों को पूरा करने के लिये लिया गया था। 47 प्रतिशत लोगों ने फसल की कटाई के बाद आत्महत्या करी क्योंकि उन्हें कर्ज़ चुकता करने को मज़बूर किया जा रहा था।
गंभीर सवाल ये है कि अगर किसानी के मद में लिया गया कर्ज़ का चुकता भी अगर किसानी से शक्य नहीं है, तो फिर इस पेशे का प्रारब्ध क्या है ? सरकारी MSP, सब्सिडी और दूसरे सरकारी वेलफेयर योजनाओं से भी उनके जीवन का स्तर कहाँ तक उठाया जा सकता है ? क्या कोई विकल्प है जिससे इन किसानों को आत्मनिर्भर बनाकर उनके आत्मसम्मान को बढ़ाया जा सके ? सरकार और सरकारी योजनाओं पर उनकी निर्भरता कम किया जा सके ?
कृषि उद्यमिता
प्रशासनिक सेवा में काम कर चुके और “जयपुर डॉयलोग फोरम” के अध्यक्ष, संजय दीक्षित, कच्छ का उदाहरण देते हैं जहाँ किसानों के समूह किसानी का अनुशीलन एक व्यवसाय की तरह कर रहे हैं। श्री दीक्षित बताते हैं कि उस क्षेत्र का एक शुष्क क्षेत्र होने के बावजूद शायद ही कोई फल हो जो वहाँ के किसान नहीं उगा रहे हों। खारे भूमिगत पानी वाले क्षेत्रों के किसान खजूर, अंगूर और अनार उगाते हैं और शेषपूरण के लिये उन्होंने बड़ी संख्या में मवेशियों को भी पाल रखा है। पानी की बेहतर गुणवत्ता वाले क्षेत्र में किसान आम, पपीता और केले को कपास या अरंडी के साथ उगाते हैं। साथ ही उन्होंने उसी खेत में सब्जियों के पौधे भी बिखेर रखे हैं। लगभग सभी किसान ड्रिप-सिंचाई (सिंचाई की एक ऐसी व्यवस्था जिससे पानी सीधे पौधों की जड़ों में जाये ताकि कम पानी का उपयोग हो साथ ही वाष्पीकरण के कारण पानी बर्बाद भी न हो) का उपयोग करते हैं। हर उन्नत कृषि-पद्धति का इस्तेमाल यहाँ के किसानों द्वारा किया जाता है। साथ ही उन्होंने कृषि और मवेशी पालन का समिश्रण, उदाहरणात्मक रूप से कर रखा है। नतीजन, यहाँ के किसानों को आर्थिक रूप से सम्पन्न कहा जा सकता है। कच्छ आज खजूर के लिये पूरे देश का केंद्र बन चुका है। यहाँ के खजूर अरब देशों में भी निर्यात होते हैं। श्री दीक्षित कहते हैं कि ये स्थिति तब है जब नर्मदा का जल अभी तक कच्छ नहीं पहुंचा है। उनका विश्वास है कि जब वहाँ तक नर्मदा का जल पहुंच जायेगा, जिसका प्रयास अभी जारी है, वहाँ और भी प्रेरणात्मक उन्नति देखने को मिलेगी।
मैं भी अपने शोध के दौरान कई ऐसे किसानों से मिला हूँ जिन्होंने अपनी सूझबूझ और कृषि-रणनीति में समय/स्थान अनुकूल परिवर्तन कर अपनी किसानी को लाभप्रद बनाया है। इसमें से कुछ आर्गेनिक खेती कर रहे हैं। बक्सर का एक किसान, बिहार के बक्सर में सेब की खेती कर रहा, शुरुआत में जिसके नवजात-पौधे वो कश्मीर से ले कर आया था। कुछ किसानों ने एक ही खेत में फलों के पेड़ के साथ मेडिसिनल पौधों का संतुलित समिश्रण कर रखा है। बिहार के हाजीपुर, पूर्णिया, शेखपुरा; उत्तरप्रदेश के बुलंदशहर; उड़ीसा और मध्यप्रदेश के कुछ किसान/कुछ किसान-समूह उल्लेखनीय हैं, शोध के दौरान जिनसे मैंने बातचीत की। इनमें से लगभग सभी किसान प्राकृतिक-खेती (नेचुरल फार्मिंग) पद्धति से किसानी कर रहे हैं। इनमें से कुछ किसान-समूह पद्मश्री सुभाष पालेकर जी द्वारा प्रशिक्षित हैं और उन्हीं की पद्धति से किसानी कर रहे हैं। नेचुरल फार्मिग पे विस्तृत चर्चा मैस्नओबोउ फुकुओका ने अपनी किताब “वन स्ट्रॉ रेवोल्यूशन” और “सोइंग सीड्स इन डेजर्ट” में भी करी है। प्राकृतिक-खेती करने वाले किसानों ने बताया कि चूंकि उनकी पद्धति में न रासायनिक खाद का उपयोग होता है और न रासायनिक कीटनाशक का, साथ ही वो चूंकि घर में उपलब्ध संसाधनों जैसे देशी गाय के गोबर, नीम के पत्तियों, इत्यादि का इस्तेमाल करते हैं, उनकी किसानी की लागत काफी कम हो जाती है। धान के पैदावार में भी उतनी पानी की जरूरत नहीं होती जितनी पारंपरिक ढ़ंग से की गई खेती में होती है। उनके पैदावार में रासायनिक खाद / कीटनाशक का उपयोग नहीं होने के कारण उनके पैदावार इंसान और मवेशियों के लिये सेहतमंद / स्वास्थवर्धक होता है। साथ ही उनकी पद्धति से न धरती की मृदा का नाश होता है न ही धरती के उपजता अथवा उपजाउता कभी कम होती है।(जो कि ज्यादा रसायनों के उपयोग पर अवश्यम्भावी होता है।) ऊपर वर्णित लगभग सारे किसान मल्टी-लेवल फार्मिंग करते हैं, अर्थात, एक ही खेत में एक ही साथ कई पैदावार उगाते हैं। उदाहरणस्वरूप खेत के चारों तरफ केला, पपीता, इत्यादि जैसे फल के पेड़, इन पेड़ों के सहारे कुद्दु जैसे लत्तर वाले पौधे, मध्य खेत में धान और धान के क्यारी के मेढ़ों पर गोभी जैसी सब्जी। किसान बताते हैं कि ऐसा करने से मुख्य फसल लगभग लागत-मुक्त हो जाता है, बल्कि फायदा ही दे जाता है। लगभग सारे किसानों ने खेती के साथ गाय पालन, मवेशी पालन, मुर्गी पालन, मछली पालन, इत्यादि का एक संतुलित-समिश्रण भी कर रखा है जो उनके आय में वृद्धि करता है। किसान बताते हैं कि, एक पैदावार का दूसरे पैदावार के साथ, पैदावार का मवेशियों के साथ सही सन्तुलित-समिश्रण एक दूसरे के लिये पूरक सिद्ध होता है बशर्ते चुनाव हर दृष्टि से अनुकूल हो। इनके एक दूसरे के पूरक होने पर कुल लागत घटती है और मुनाफा बढ़ता है। किसान बताते हैं के, यही, संतुलित-समिश्रण तानिकी रूप से विशेष हो जाता है, जिसके लिये प्रशिक्षण लेना पड़ता है साथ ही साथ कुछ प्रयोग खुद भी करने पड़ते हैं। ऊपर वर्णित उड़ीसा का समूह एक विजातीय समूह है। इसमें वो किसान भी हैं जिनके पास ज्यादा खेत है पर वो खुद खेती नहीं करते, वो किसान भी जो सिर्फ जोत्तदार हैं, वो लोग भी जो कृषि में छोटे-बड़े निवेश के इच्छुक हैं तथा वो लोग भी जिनका मार्केट में अच्छा नेटवर्क है, सारे एक समूह में, जो उनके सर्वांगीक आर्थिक विकास का कारण बन रहा है। वर्णित शेखपुरा के किसान, नये साल में अपना विस्तार बिहार के बाढ़ जिले में करने वाले हैं। उल्लेखनीय ये है कि ऊपर वर्णित सारे के सारे किसान, चाहे वो श्री दीक्षित द्वारा वर्णित हों या फिर मेरे द्वारा, आज उस आर्थिक स्थिती में हैं जहाँ न उन्हें एम.एस.पी की परवाह है न ही सरकारी सब्सिडी की जरूरत।
आगे की राह
सारांश यही है कि, भारतीय कृषकों की आय में वृधि या फिर ये कहें कि वर्तमान केंद्रीय सरकार जो किसानों की वर्तमान आय को दोगुना करने को प्रयत्नशील है, तभी संभव है जब किसान जिस किसी भी “कृषि उत्पादन की पद्धति” को अपनायें वो पद्धति ऐसी हो जिसमें कुल-लागत घटने के साथ ही साथ आय में सतत वृद्धि अवश्यम्भावी हो। जिसमें किसानों को हमेशा कर्ज़ लेने की स्थिति न बने और अगर कभी किसान कर्ज ले भी तो उस कर्ज़ का हेतू निवेश हो न की व्यय।
केंद्र सरकार अगर अपने कृषि मंत्रालय के माध्यम से उपरोक्त किसानों या उपरोक्त जैसे किसानों और कृषि-प्रशिक्षकों की पहचान कर इनके साथ एक गंभीर संवाद स्थापित करती है तो शायद भविष्य की कोई ऐसी कृषि नीति उभर कर आये जो भारतीय कृषकों को आत्मनिर्भर बनाने में कारक सिद्ध हो। युवाओं को कृषि की ओर आकर्षित करे। साथ-साथ उन स्टार्टअप्स को भी आकर्षित करे जो कृषि-उत्पाद में वैल्यू-ऐडीसन कर अपने आय के साथ कृषकों के आय को और अधिक बढ़ाने की संभावना को बढ़ाये।
बहुत ही शानदार लेखनी। इतना विस्तृत होना सबके लिए संभव नहीं है। आपका परिश्रम और समझ दोनों ही अतुल्य है। मेरी एक सलाह है कि अगर किसानों को सामूहिक खेती करने के लिए प्रोत्साहित किया जाए और इनके बीच अच्छे सामंजस्य बैठाने में सरकार मदद करें तो सारे समस्याओं का समाधान हो सकता है।
प्रोतसाहन और सराहना के लिये सहृदय धन्यवाद। आपके सुझाव विचारणीय हैं।
यह बहुत ही आवश्यक जानकारी है।यह आधुनिक कृषि के तहत कम लागत पर अधिक आय प्रदान करने वाली होगी।
प्रोतसाहन और सराहना के लिये सहृदय धन्यवाद।
Ekdam sahi likha hai aapne —-
प्रोतसाहन और सराहना के लिये सहृदय धन्यवाद।